मेरी जानिब भी इनायत की नज़र होने लगी
जिंदगानी उनके साए में बसर होने लगी
मैंने इजहारे तमन्ना जब न की उनसे कभी
फिर न जाने कैसे दुनिया को ख़बर होने लगी
बे खुदी हद से गुज़रती जा रही है दिन ब दिन
रफ्ता रफ्ता मेरी यह हालत दीगर होने लगी
मेरी आँखों में समाता जा रहा है अक्से हुस्न
उनकी सूरत चारों जानिब जलवागर होने लगी
मेरी रुसवाई का चर्चा हर तरफ होने लगा
ख़ुद ब ख़ुद मेरी मोहब्बत मोतबर होने लगी
क्यों रहे "अलीम" को फिकरे इलाजे दर्दे दिल
दर्द की लज्ज़त से हस्ती बखबर होने लगी
वाह वाह क्या बात है! माशाल्लाह आपकी ग़ज़ल की तो जितनी भी तारीफ की जाए कम है! बहुत खूब !
ReplyDelete