Tuesday, July 7, 2009

ग़ज़ल

मेरी जानिब भी इनायत की नज़र होने लगी
जिंदगानी उनके साए में बसर होने लगी
मैंने इजहारे तमन्ना जब न की उनसे कभी
फिर न जाने कैसे दुनिया को ख़बर होने लगी
बे खुदी हद से गुज़रती जा रही है दिन ब दिन
रफ्ता रफ्ता मेरी यह हालत दीगर होने लगी
मेरी आँखों में समाता जा रहा है अक्से हुस्न
उनकी सूरत चारों जानिब जलवागर होने लगी
मेरी रुसवाई का चर्चा हर तरफ होने लगा
ख़ुद ब ख़ुद मेरी मोहब्बत मोतबर होने लगी
क्यों रहे "अलीम" को फिकरे इलाजे दर्दे दिल
दर्द की लज्ज़त से हस्ती बखबर होने लगी

1 comment:

  1. वाह वाह क्या बात है! माशाल्लाह आपकी ग़ज़ल की तो जितनी भी तारीफ की जाए कम है! बहुत खूब !

    ReplyDelete

ap sabhi ka sawagat hai aapke viksit comments ke sath