वफाओं के बदले यह क्या दे रहे है
मुझे मेरे अपने दगा दे रहे है
जो पौधे लगाये थे चाहत से मैंने
वोह नफरत की क्योंकर हवा दे रहे है
कभी मेरे हमदम बिचदना ना मुझसे
मोहब्बत के मौसम मज़ा दे रहे है
हमारे दिलों से खेले है बरसों
उन्हें अब तलक हम दुआ दे रहे है
मैं हंसने की बातें करू "अलीम " कैसे
मुझे मेरे अपने रुला दे रहे है ।
आपका हर एक ग़ज़ल इतना शानदार है कि तारीफ के लिए शब्द कम पर जाते हैं!
ReplyDeletebahut badiya........har baar ki tara
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