Tuesday, August 11, 2009

ग़ज़ल

वफाओं के बदले यह क्या दे रहे है
मुझे मेरे अपने दगा दे रहे है
जो पौधे लगाये थे चाहत से मैंने
वोह नफरत की क्योंकर हवा दे रहे है
कभी मेरे हमदम बिचदना ना मुझसे
मोहब्बत के मौसम मज़ा दे रहे है
हमारे दिलों से खेले है बरसों
उन्हें अब तलक हम दुआ दे रहे है
मैं हंसने की बातें करू "अलीम " कैसे
मुझे मेरे अपने रुला दे रहे है ।

2 comments:

  1. आपका हर एक ग़ज़ल इतना शानदार है कि तारीफ के लिए शब्द कम पर जाते हैं!

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  2. bahut badiya........har baar ki tara

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ap sabhi ka sawagat hai aapke viksit comments ke sath