Thursday, March 4, 2010

ग़ज़ल

सब्र और ज़ब्त की इन्तेहा हो गयी

सर ज़मीने वतन कर्बला हो गयी ।

दिल लगाने की हम स खता हो गयी

ज़िन्दगी किस कदर बे मज़ा हो गयी ।

जब स बचपन गया और शबाब अगया

साड़ी शोखी शरारत हवा हो गयी ।

सर ज़माने के आगे झुकाना पड़ा

जब नमाज़े मोहब्बत क़ज़ा हो गयी

आज फिर उनकी नज़रों की नज़रें मिली

फिर धनक रंगे दिल की फ़ज़ा हो गयी ।

सब्र और ज़ब्त की इन्तहा हो गयी

सर ज़मीने वतन कर्बला हो गयी

3 comments:

  1. aleem ji bahut acchhi nazm paish ki...lekin ham jaise urdu k na-samjho ko urdu k shabdo k matlab nahi pata hote...so pls. kathin shabdo k meanings likh diya kare...such as KARBLA

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  2. वाह अलीम जी हम तो निशब्द हो गए आपके इस उम्दा ग़ज़ल को पढ़कर! इतना कहना चाहेंगे की आपकी लेखनी को सलाम! अद्भुत सुन्दर! इस उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई!

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  3. ज़िन्दगी किस कदर बे मज़ा हो गयी ।



    अलीम जी दिल लगाने से ज़िन्दगी बेमज़ा .....?????



    साड़ी शोखी शरारत हवा हो गयी ...

    साडी को सारी कर लें .....!!

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ap sabhi ka sawagat hai aapke viksit comments ke sath