Tuesday, March 1, 2011

ग़ज़ल







इश्क था जिससे उसी शख्श से नफरत कैसी
दिल मोहब्बत के लिए है तो अदावत कैसी

ज़िन्दगी तुझसे ज़ालिम की शिकायत कैसी
वक़्त हाकिम है तो हाकिम से बगावत कैसी

हम वफादारों को मरने भी नहीं देता है
उसके लहजे में है ज़हरीली शराफत कैसी

ऐसे अंदाज़े मोहब्बत पे मोहब्बत कुर्बान
दिल में आते हो तो आजाओ इज़ाज़त कैसी

खुद भी हैरान हूँ मैं अपनी अना के हाथों
गम उठाने की मुझे पद गयी आदत कैसी

ज़ख्म भी देते हो और हाल भी कब पूछते हो
अब ये हमदर्दी है तो होती है अदावत कैसी

जो भी बोया है वही काटेगा एक रोज़ "अलीम"
गम मिले है ज़माने से शिकायत कैसी !

2 comments:

  1. as usual bahut aacha likha haa....keep it up....

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  2. ऐसे अंदाज़े मोहब्बत पे मोहब्बत कुर्बान
    दिल में आते हो तो आजाओ इज़ाज़त कैसी

    वाह...वाह बहुत खूब कहा है आपने ....सच में जहाँ मोहब्बत है वहां सिर्फ प्यार और प्यार है
    भले ही मोहब्बत कोई भी क़ुर्बानी क्यों ना मांगे ......दोस्त ऐसे ही लिखते रहे

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