Thursday, April 30, 2009

ग़ज़ल

मेरे अश्क जितने निकलते रहे
दिए मेरे पलकों पर जलते रहे
वोह लम्हों की कैसी मुलाकात थी
की ता जीस्त अरमा मचलते रहे
वो शिकवे गिले करके चुप हो गए
मगर करवटे हम बदलते रहे
किसी ने बुझाने की न कोशिश की
जो घर जल रहे थे वो जलते रहे
नशेमन हमारा जला तो जला
तुम्हरे तो अरमा निकलते रहे
"अलीम" जलने वालो का क्या तज़किरा
सदा जलने वाले तो जलते रहे

No comments:

Post a Comment

ap sabhi ka sawagat hai aapke viksit comments ke sath