Tuesday, March 16, 2010

चले आओ तुम आज


वह कह रहा था उससे मुझे प्यार भी नहीं
उसका तो मै रहा था तलबगार भी नहीं


तेरे बिना रजा के भी पा सकता था तूझे
मेरे लिए बहुत था यह दुशवार भी नहीं


एक दिल को कितने टुकडो में आया है बाँट वह
अब तो बचेगा कोई खरीदार भी नहीं


खामोश उसपे ज़ुल्मो सितम देखते रहे
हम जानते थे वह था खतावार भी नहीं


सारे बहाने छोड़ चले आओ आज तुम
बारिश के आज है कोई आसार भी नहीं


खवाबों में जिसको दिल में बसाए है उम्र भर
बरसो स उसका हो सका दीदार भी नहीं


नफरत है उसको मुझसे तो क्यों हो मोहब्बत
इतने तो हम है "अलीम" बेकार भी नहीं





3 comments:

  1. खामोश उसपे ज़ुल्मो सितम देखते रहे
    हम जानते थे वह था खतावार भी नहीं
    सारे बहाने छोड़ चले आओ आज तुम
    बारिश के आज है कोई आसार भी नहीं..
    वाह लाजवाब पंक्तियाँ! शानदार रचना! आपकी लेखनी को सलाम!

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  2. वह कह रहा था उससे मुझे प्यार भी नहीं
    उसका तो मै रहा था तलबगार भी नहीं

    तलबगार न थे तो प्यार की बात आई कहाँ से .....कोई तो राज़ है .....!!

    नफरत है उसको मुझसे तो क्यों हो मोहब्बत
    इतने तो हम है "अलीम" बेकार भी नहीं

    बिलकुल सही ख्यालात ......!!

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  3. wah wa aleem bhai kya baat hai abhut khoob.....aur yeh pankti to chaar chaand laga di..खवाबों में जिसको दिल में बसाए है उम्र भर
    बरसो स उसका हो सका दीदार भी नहीं.......

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ap sabhi ka sawagat hai aapke viksit comments ke sath